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बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का,
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का।।

एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है,
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है।।

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो,
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो।।

हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो,
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो।।

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में,
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में।।

हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं,
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं।।

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं,
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायें।।

गेबागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे,
अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की,
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था।।

भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था,
अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर।।

कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर,
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर।।

शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर,
निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में।।

जाकरबेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुला कर,
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं।।

माँ-बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है,
जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है।।

तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे,
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे।।

बाबासाहब के सपनों का सारा भारत टूटे लेता है,
यहाँ चमन का माली खुद ही कलियाँ लुटे लेता है।।

निंदिया के आँचल में जब ये सारा जग सोता होगा,
पूरे भारत में चुपके -चुपके तब गरीब रोता होगा।।

हर चौराहे से आवाजें आती हैं सन्नाटों की,
पूरा देश नजर आता है मंडी ताज़ा लाशों की।।

सिंहासन को चला रहे हैं नैतिकता के नारों से,
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से।।

जन-गण-मन ये पूछ रहा है दिल्ली की दीवारों से,
कब तक हम गोली खायें सरकारी पहरेदारों से।।

सिंहासन खुद ही शामिल है अब तो गुंडागर्दी में,
संविधान के हत्यारे हैं अब सरकारी वर्दी में।।

जब तक लाशें पड़ी रहेंगी फुटपाथों की सर्दी में,
तब तक हम अपनी कविता के अंगारे दहकायेंगे।।

बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे,
कोई भी निष्पक्ष नहीं है सब सत्ता के पण्डे हैं।।

आज पुलिस के हाथों में भी अत्याचारी डंडे हैं,
संसद के सीने पर ख़ूनी दाग दिखाई देता है।।

पूरा भारत जलियांवाला बाग़ दिखाई देता है,
इस आलम पर मौन लेखनी दिल को बहुत जलाती है,
क्यों कवियों की खुद्दारी भी सत्ता से डर जाती है।।

उस कवि का मर जाना ही अच्छा है जो खुद्दार नहीं,
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं।।

कलमकार का फर्ज रहा है अंधियारों से लड़ने का,
राजभवन के राजमुकुट के आगे तनकर अड़ने का।।

लेकिन कलम लुटेरों को अब कहती है गाँधीवादी,
और डाकुओं को सत्ता ने दी है ऐसी आजादी,
राजमुकुट पहने बैठे हैं बर्बरता के अपराधी।।
हम ऐसे ताजों को अपनी ठोकर से ठुकरायेंगे,
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे।।

बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है,
मेरी शैली काव्य-शास्त्र की हत्यारी लग सकती है।।

पर जब संसद गूंगी शासन बहरा होने लगता है,
और कलम की आजादी पर पहरा होने लगता है।।

तो अंतर आ ही जाता है शब्दों की परिभाषा में,
कवि को चिल्लाना पड़ता है अंगारों की भाषा में।।

जब छालों की पीड़ा गाने की मजबूरी होती है,
तो कविता में कला-व्यंजना ग़ैर जरुरी होती है।।

झोपड़ियों की चीखों का क्या कहीं आचरण होता है,
मासूमो के आँसू का क्या कहीं व्याकरण होता है।।

वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ाते हैं,
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढ़ाते हैं।।

जिन शब्दों की अय्याशी को पंडित गीत बताते हैं,
हम ऐसे गीतों की भाषा कभी नहीं अपनाएंगे।।

बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे,
जब पूरा जीवन पीड़ा के दामन में ढल जाता है।।

तो सारा व्याकरण पेट की अगनी में जल जाता है,
जिस दिन भूख बगावत वाली सीमा पर आ जाती है।।

उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है,
मेरी पीढ़ी वालो जागो तरुणाई नीलाम न हो।।

इतिहासों के शिलालेख पर कल यौवन बदनाम न हो,
अपने लोहू में नाखून डुबोने को तैयार रहो।।

अपने सीने पर कातिल लिखवाने को तैयार रहो,
हम अहिंसा की राहों से हटते हैं तो हट जाने दो।।

अब दो-चार भ्रष्ट नेता कटते हैं तो कट जाने दो,
हम समझौतों की चादर को और नहीं अब ओढेंगे।।

जो माँ के आँचल को फाड़े हम वो बाजू तोड़ेंगे,
अपने घर में कोई भी गद्दार नहीं अब छोड़ेंगे,
हम गद्दारों को चुनकर दीवारों में चिन्वायेंगे,
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे।।

डॉ. हरिओम पंवार

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