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"मानवता ही श्रेष्ठ धर्म हैं"

*आजकल शादी-ब्याह का मौसम जोरों पर चल रहा हैं ।*
कहते हैं शादी का लड्डू ऐसा हैं जो खाये वो पछताए जो न खाये वो भी पछताए ।कुछ बुद्धिजीवी और विद्वान सलाह देते हैं कि लड्डू खाकर ही पछताना चाहिए । लेकिन मेरी सलाह हैं कि शादी के लड्डू को पछताने वाला कतई भी नही बनाये इतनी काबिलियत खुद में तैयार कर ले कि जीवन-सफर ख़ुशी-ख़ुशी व्यतीत हो ।नींद से सुबह जैसे ही मेरी आँखे खुली पड़ोस से मधुर संगीत आवाज़ आया गीत चल रहा था - बाबुल की दुआये लेती जा जा तुझको .....**
मुझे ख्याल आया कि इतना पुराना गीत, वह भी रुला देने वाला, इतने सालों बाद ? अब फिल्मों में नए गीत क्यों नही बनते ? बनते भी हैं तो बहुत ही कम ?**क्या अब फिल्मों में व्यवस्थित शादियाँ नही दिखाई जाती ?**आधुनिक युग में युवां-युवतियां शायद अब प्रेम-विवाह ज्यादा पसन्द करती हैं इसलिए माता-पिता भी शार्टकट पसन्द करते हुए विवाह कर देते हैं । इसलिए बिदाई के गीत नही के बराबर बन रहे हैं ।*
*अंत में ! मैं तो चाहता हूँ कि बिदाई गीत भी बने , प्रेम- विवाह ( अंतर्जातीय विवाह ) भी हो ! प्रेमी-युगल को मनपसन्द हमसफ़र भी मिले लेकिन माँ-बाप की इज़ाजत से ।**और हर माता-पिता को भी अब जातिवाद से ऊपर उठकर अपनी मानसिकता में परिवर्तन करते हुए (प्रेम-विवाह)"अंतर्जातीय विवाह" के लिए अनुमति दें क्योंकि व्यक्ति की एक ही जाति - "मानव" हैं । और व्यक्ति का एकही धर्म - "मानवता" हैं तो फिर "प्रेम-विवाह" पर प्रतिबन्ध क्यों ??

**मानवता ही श्रेष्ठ धर्म हैं**

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